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कविता

आदिवासी-2

सत्यनारायण


बंधु,
हम हैं आदिवासी।

सृष्टि ने होठों रचा जो
वही आदिम राग हैं हम
पर्वतों की कोख से जन्मी
धधकती आग हैं हम
            यह सदानीरा नदी
            बहती रही, फिर भी पियासी।

हम वही, वन-प्रांतरों को
जो हरापन बाँटते हैं
रास्ते आते निकल, जब
पर्वतों को काटते हैं
            राजमहलों के नहीं, हम
            जंगलों के हैं निवासी।

हाँ, अपढ़ हैं, भुच्च हैं हम
बेतरह काले-कलूटे
जंगलों के आवरण पर
हम सुनहरे बेल-बूटे
            तन भले अपना अमावस
            किंतु, मन है पूर्णमासी।

पूछिए मत, युग-युगों से
चल रहे थे सिलसिले हैं
भद्रजन जब भी मिले हैं
फासले रखकर मिले हैं
            आज के इस तंत्र में तो
            मोहरे हम हैं सियासी।
 


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